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श्री निवास रामानुजन आधुनिक युग के गणित में महान प्रतिभाशाली विभूति माने जाते है । गणित के इतिहास  में उन्होने भारत देश का नाम उज्जवल किया । गणित में उनको अनुपम उपलब्धियां और भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत जीवन शैली हम सबके लिए प्रेरणा का स्रोत हैं ।

 रामानुजन का जन्म 22 दिसंबर, 1887 ई. में तमिलनाडु के इरोड में एक निर्धन वैष्णव , ब्राह्मण परिवार में हुआ था । बाल्यकाल में उनका पालन-पोषण धार्मिक संस्कारों के वातावरण में हुआ। उनकी मां धार्मिक कथाएं और भजन आदि सुनाती थीं जिससे बचपन से हीं उनकी धार्मिक रुचि बढ़ गई ।

 पांच वर्ष की आयु में रामानुजन ने कुम्भ कोणम नगर की एक पाठशाला में पढ़ना प्रारंभ किया और प्राथमिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के पश्चात्, टाउन हाई विद्यालय में उन्हें प्रवेश मिल गया जहां उन्होंने 1898 से 1904 तक शिक्षा ग्रहण की | उनके सहपाठी और शिक्षक उनकी प्रतिभा से अत्यधिक प्रभावित हुए | वह विद्यालय में अन्य विषयों की तुलना में गणित में सबसे अधिक समय देते और मेधावी छात्र रूप में प्रसिद्ध हो गए थे|वह पुस्तकालय से उच्च गणित की  पुस्तकें लेकर पढते थे और गणित के ज्ञान में इतने आगे थे कि बड़ी कक्षाओं के विद्यार्थी तक उनसे गणित के प्रश्नों के हल पूछने आते थे। कभी-कभी वह कक्षा में ऐसे गंभीर प्रश्न पूछ लिया करते थे जो अध्यापकों को आश्चर्यचकित कर देते। दिसंबर, 1903 में मैट्रिक की परीक्षा को उच्च स्थान में उतीर्ण करने के बाद उनको आगे की पढाई के लिए छात्रवृत्ति मिली परन्तु गणित के अतिरिक्त, अन्य विषयों को न पढ़ने के कारन वह  ग्याहरवीं कक्षा को उतीर्ण नही कने के कारन उनको उनको छात्रवृत्ति मिलनी बंद हो गई और आगे की औपचारिक शिक्षा स्थगित करनी पड़ी|

 गणित में वह आनंदपूर्वक व्यस्त रहते थे| जैसे कोई बड़ा भवत ईश्वर की उपासना में लीन रहता है। परन्तु आर्थिक कठिनाईयों के कारण उनको उपयुक्त आहार उपलब्ध नहीं था, जो प्राय: उनकी बीमारी का कारन रहा बना। परंतु अस्वस्थता में भी उनका गणित कार्य निरंतर चलता रहा। वह अंकों के बड़े खिलाडी थे और अपनी विलक्षण प्रतिभा से उन्होंने अनेकों उच्च श्रेणी के सूत्रों और प्रमेयो के आविष्कार किए।

अनेक संघर्षों के पश्चात उनको जनवरी 1913 में बहुत कम वेतन पर मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में बाबू की छोटी-सी नौकरी मिली। पर्याप्त वेतन न होने कारण पूरे परिवार के भरण-पोषण में बहुत कठिनाई होती थी। अत: धन की कमी के कारण वह इधर-उधर से पुराने रदूदी के कागज इकटूठा करके गणना का काम चलाते थे।

अपने मित्रों और शुभचिंतकों के आग्रह पर उन्होंने अपने गणित के सूत्र और प्रमेय कैम्बिज़ विश्वविद्यालय के विश्व प्रसिद्ध गणितज्ञ प्रो. जीएच. हार्डी को लंदन मेज दिए। रामानुजन के प्रतिभा-सम्पन कार्य के गूढ अध्ययन पर प्रो. हार्डी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा । उनके विचार में  इन सूत्रों को प्रतिपादित करने की और कोई व्यक्ति कल्पना मी नहीं कर सकता था। उन्हें  रामानुजन की अदृभुत बुद्धि और क्षमता का अनुमान हूआ और बिना विलम्ब के उन्हें कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में कार्य करने के लिए आमंत्रित कर दिया । अप्रैल 1914 में, वह तीन सप्ताह की समुद्री यात्रा करके इंग्लैंड पहुंचे जहां कैम्बिज के विख्यात ट्रिनिटी कॉलेज में शोध के लिए उनको प्रवेश मिल गया। प्रो. हार्डी के सानिध्य में रामानुजन ने पांच वर्ष गणित में महत्वपूर्ण शोध कार्य किया जिससे गणित के  क्षेत्र में नया मोड आया और उनके जीवन में नवीन आशा की किरण आलोकित हुई ।

विदेश में भी रामानुजन ने भारतीय संस्कृति के गौरव को बनाए रखा और सरल, संयमित, सदाचारी जीवन व्यतीत किया। पाश्चात्य रहन सहन का प्रभाव अपने ऊपर नहीं पड़ने दिया। वह सदा शाकाहारी रहे। अपने लिए भोजन स्वयं पकाते थे और कभी कभी अपने मित्रों का स्वादिष्ट भोजन बनाकर अतिथि सत्कार करते थे। परम्परानिष्ठ भारतीय की तरह उन्होंने नियमित रूप से पूजा-अर्चना की और इसके लिए अलग से पूजा कक्ष व्यवस्थित किया। धर में नंगे पैर चलते ये और भारतीय शैली में धोती पहनते थे।

रामानुजन सच्चे कर्मयोगी ये। उनहोंने गणित में समर्पण भाव से कार्यं करके, अनेक नवीन और महत्वपूर्ण सूत्र और प्रमेय प्रतिपादित किए। उनके शोध पत्र अनेक राष्ट्रिय और अंतराष्ट्रीय पत्रिकाओं में बडी संख्याओं में प्रकाशित हुए ।

उनकी प्रवीणता, अंर्तदृष्टि, सृजानात्मक शक्ति और उत्कृष्ट योगदान के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने 1916 में उनको बी:ए; की उपाधि से विभूषित किया। फरवरी 1918 में वह रॉयल सोसायटी आँफ लंदन के सदस्य चुने गए जो वैज्ञानिक जगत में उस समय सर्वोच्च सम्मान माना जाता था। अक्तूबर, 1918 में रामानुजन को ट्रिनिटी कॉलेज में सदस्य चुनकर सम्मानित किया गया। ट्रिनिटी कॉलेज में वह पहले भारतीय सदस्य थे। कैम्ब्रिज में वह एक प्रखर और महान गणितज्ञ के रूप में प्रख्यात हो गए थे।

दुर्भाग्यवश लंदन प्रवास में वह क्षय रोग से ग्रासित हो गए । रोग के निदान के लिए एक नर्सिग होम में उनको भर्ती होना पड़ा। उस समय प्रो. हार्डी उनसे मिलने और स्वास्थ्य के विषय में जानने वहा' गए। उन्होंने बात-चीत की और रामानुजन के रोग को गंभीरता पर चिंता व्यक्त की। उनको उसी टैक्सी रो वापस जाना था जिससे वह बहा' आए  । टैक्सी का नंबर याद करते हुए वह बोले, 'मैरी टैक्सी का नंबर 1729 है। यह नीरस नंबर लगता है। आशा करता हूँ किं यह किसी अपशगुन का सूचक नहीं होगा। रामानुजन ने यह सुनकर तुरंत कहा ऐसा नही है| यह बड़ी रोचक सख्यां है जो अन्य संख्याओ मे सबसे छोटी है जिसको दो अलग-अलग प्रकार से दो घनो के योग के रूप में प्रकट कर सकते हैं |

रामानुजन के इस निरूपण को सुनकर प्रो. हार्डी आश्चर्यचकित हो  गए क्यूंकि रोगग्रसित अवस्था में  रहने पर भी मानसिक रूप से वह इतने सचेत और सक्रिय थे। प्रो. हार्डी ने स्वीकार किया की जितना उन्होंने रामानुजन को सिखाया, उससे कहीं ज्यादा उन्होंने रामानुजन से सिखा |

रामानुजन द्वारा प्रतिपादित संख्याओ का  विभाजन सिंद्धांत , नए  और  लाभदायक सूत्र तथा प्रमेय गणित की अनुपम भेंट  हैं जो कंप्यूटर विज्ञान , पॉलीमर रसायनशास्त्र, कैंसर अनुसंधान में उपयोगी सिद्ध हुए हैं । ये लगभग 800 पृष्ठों में हस्तलिखित हैं और विश्व के गणितज्ञों के लिए शोध की सामग्री हैं । इनको नोट बुक कै नाम से छपा गया है । कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने भी उनके शोघ निबंधो को प्रकाशित किया है जिसका सम्पादन प्रो. जीएच. हार्डी , प्रो.विलसन और प्रो. शेख अय्यर ने किया है।

अस्वस्थता के कारण , रामानुजन को अनुकूल जलवायु  पारिवारिक वातावरण. और घरेलू सुख -सुविधा क्री आवश्यकता थी जिसके कारण वह मार्च 1919 में स्वदेश वापस आ गए । विषम संघर्षमय परिस्थितियों के साथ वह जीवन के अंतिम  दिनों में भी गणित साधना में व्यस्त रहे । सर्वश्रेष्ठ उपचार और सेवा-सुश्रुषा प्राप्त होने पर भी रोग की उग्रता के कारण , इस गणित सम्राट ने 32 वर्ष की अल्प आयु (26 अप्रैल 1920) में प्राण त्याग दिए परंतु गणित के इतिहास में वह अमर हैं।

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