जगदीश चन्द्र बसु पहले भारतीय शोधकर्ता थे,जिन्होने एक साथ भौतिक एवं वनस्पति विज्ञान ,तथा रेडिओ विज्ञान के क्षेत्र में योगदान दिया |धन एवं वैज्ञानिक उपकरणों की कमी के बावजूद उन्होंने अनुसन्धान कार्य को जारी रखा|
अंग्रेजी हुकूमत के दौरान पले-बढे भारतीय वैज्ञानिक व प्रोफेसर डॉ जगदीश चन्द्र बसु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे । उनकें प्रतिभा की अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि मूलत: भौतिक विज्ञानी होने के साथ-साथ वे जीवविज्ञानी, तथा पुरातात्त्विक लेखक भी थे ।

उन्होंने वनस्पतियों में संवेदनाएं होने की बात सिद्ध करके पूरे विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया। यह वह दौर था, जब देश में विज्ञान पर शोधकार्य लगभग न के बराबर हो रहे ये । ऐसी परिस्थितियों में उन्होंने विज्ञान के क्षेत्र में भौतिक योगदान दिया। प्रो. बसु के अनुसंधान एवं शोधकार्य आने वाले समय के लिए मील का पत्थर साबित हुए । आज का रेडियो, टेलीविजन, रडार, रिमोट सेंसिंग, धरातलीय संचार, इंटरनेट तथा माइक्रोवेब्स उनके प्रति कृतज्ञ हैं। 

प्रारम्भिक जीवन व शिक्षा 
जगदीश चन्द्र बसु का जन्म 30 नवम्बर  1858 को मेंमनसिंह (बंगाल प्रेसीडेन्सी) के ररौली गॉव में हुआ था, जो अब बाँग्लादेश का हिस्सा है । उनके पिता भगवान चन्द्र वसु ब्रिटिश इंडिया गवर्नमेंट में न्यायिक पद पर कार्यरत थे । बालक जगदीश की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के ही विद्यालय में हुईं । यद्यपि उनके पिता चाहते, तो पुत्र की प्रारम्भिक शिक्षा अंग्रेजी स्कूल से करां सकते थे । किन्तु देश की संस्कृति के प्रति लगाव के चलते उन्होंने ऐसा नहीँ किया । सेकेण्डरी एवं सीनियर सेकेण्डरी स्तर की पढाई उन्होंने सेण्ट जेवियर कॉलेज कलकत्ता  से पूरी की । सन् 1879 में बसु ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से भौतिक विज्ञान में स्नातक की डिग्री प्राप्त की । युवा उम्र में बसु ने चिकित्सा क्षेत्र में रुचि प्रदर्शित की और चिकित्सा शास्त्र की पढाई कं लिए लंदन भी गए, लेकिन किन्हीं कारणों से ऐसा न कर सके । फिर कैम्ब्रिज के क्राइस्ट कॉलेज से 1884 में नेचुरल साइंस में स्नातक किया । उसके दो साल बाद लंदन यूनीवर्सिटी से पीएच. डी. की उपाधि प्राप्त की। अपने इंग्लैण्ड प्रवास के दौरान ही उनकी मुलाकात एक साथी छात्र प्रफुल्ल चन्द्र से हुईं  और दोनों अच्छे दोस्त बन गए थे ।  

कैरियर 
भौतिकी के प्रोफेसर के रूप में जगदीश चन्द्र बासु की नियुक्ति 1885 में प्रेसिडेंट काँलेज, कलकता में हुई । वह पहले भारतीय थे, जिनकी नियुक्ति इस पद पर हुई थे । किन्तु नस्ली भेदभाव के कारण उन्हें इस पद पर निर्धारित वेतन से आधे पर रखा गया । बसु ने इस भेदभाव का विरोध किया और इस पद पर कार्यरत किसी यूरोपियन के बराबर अपने वेतन की मांग की । जब उनके विरोध पर कोई विचार नहीं हुआ, तो उन्होंने वेतन लिए बगैर आगामी तीन साल तक अध्यापन कार्यं किया । अंत: अधिकारियों ने उनकी योग्यता तथा मांग को उचित समझा और उनकी नियुक्ति को स्थायी किया । इतना ही नहीं विगत तीन साल का पूर्ण वेतन उन्हें दिया गया । एक शिक्षक के रूप में जगदीश चन्द्र बसु अपने छात्रों के बीच काफी लोकप्रिय थे । उनकें कई छात्रों ने भी भविष्य में ऊँचाई की बुलन्दियॉ हासिल कीं । सत्येन्द्र नाथ बोस एवं मेघनाथ साहा उनके ऐसे ही शिष्य थे। 

योगदान एवं उपलब्धियों 
जगदीश चन्द्र बसु पहले भारतीय शोधकर्ता थे, जिन्होंने एक साथ भौतिक विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, पुरातत्व विज्ञान तथा रेडियो विज्ञान के क्षेत्र में योगदान दिया। धन एवं वैज्ञानिक उपकरणों" की कमी के बावजूद अपने अनुसंधान कार्यों को जारी रखा । बल्कि सन् 1894 के बाद तो उन्होंने स्वयं को पूरी तरह अनुसंधान एवं प्रयोगों के प्रति समर्पित कर दिया । उन्होंने अपवर्तन, विवर्तन व ध्रुवीकरण से सम्बन्धित अनेक प्रयोग किया । वह वायरलेस टेलींग्राफी के वास्तविक आविष्कारक थे क्योकि मार्कोनी के आविष्कार के एक साल पूर्व ही उन्होंने इसका प्रदर्शन किया था । वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने रेडियो संकेतों को पकडने के लिए अर्धचालको का प्रयोग किया । बसु पेटेंट प्रक्रिया के प्रबल विरोधी थे । शायद इसीलिए अपनी खोजों से व्यावसायिक लाभ उठाने की जगह उन्हें सार्वजनिक रूप से प्रकाशित कर दिया करते थे, ताकि अन्य शोधकर्ता उन पर आगे काम कर सकें ।
बसु प्रकाश के गुणों के अध्ययन के लिए लम्बी तरंगदैर्ध्य की प्रकाश तरंगों के हानि को समझ गए थे उन्होंने एक ऐसे यंत्र का निर्माण किया, जो सूक्ष्म तरंगें उत्पन्न कर सकती थी । इन तरंगों की ' लम्बाई एक सेन्टीमीटर से पाँच मिलीमीटर थी, जिन्हें आज हम 'माइक्रोवव्स‘ के नाम से जानते हैं । उन्होने एक बेहद संवेदनशील “कोहरर" का मी निर्माण किया । यह एक ऐसी युक्ति थी, जो रेडियो तरंगों का ज्ञान कराती थी । इसके द्वारा वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि धातुओं में भी भावना व स्मृति की क्षमता होती है । 

बसु ने अपने प्रयोगों के द्वारा यह दर्शाया कि पौधों में भी जीवन है । उन्होंने यह साबित किया कि पौधों में दर्द व स्नेह महसूस करने की क्षमता होती हे । पौधों की धडकन रिकॉर्ड करने के लिए उन्होंने एक यंत्र का आविष्कार किया । एक प्रयोग के लिए उन्होंने जड़ सहित एक पौधे को ब्रोमाइड से भरे बर्तन मेँ डाला । इसके बाद पाया कि पौधे की धडकन अस्थिर होकर तेजी से बढने लगी और फिर स्थिर हो गई, क्योकि ब्रोमाइड, जो कि एक जहर है, के कारण पौधे की मृत्यु हो गई थी । बसु ने बताया कि रासायनिक, यांत्रिक, ताप व विद्युत जैसे विभिन्न प्रकार की उत्तेजनाओं में पौधों के ऊतक भी प्राणियों के समान विद्युतीय संकेत उत्पन्न करते हैं । उन्होंने पौधों पर बदलते हुए मौसम से होने वाले प्रभाव का अध्ययन किया । इसके साथ ही उन्होंने रासायनिक इन्हीबिटर्स का पौधों पर प्रभाव और बदलते तापमान से होने वाले असर का भी अध्ययन किया । वसु ने एक यंत्र क्रोस्कोग्राफ का आविष्कार किया । इस यंत्र के द्वारा इन्होंने विभिन्न उत्तेजको के प्रति पौधों की प्रतिक्रिया का अध्ययन किया और सिद्ध किया कि पौधों और प्राणियों के ऊतकों में काफी समानता है । 

अद्वितीय वैज्ञानिक प्रो. जगदीश चन्द्र बसु
प्रो. जगदीश चन्द्र बसु सन् 1915 में प्रेसीडेन्सी कॉलेज से सेवानिवृत्त हो गए और इन्होंने ‘धीरे-धीरे कलकत्ता स्थित अपने घर पर ही प्रयोगशाला बनायी तथा शोघ कार्य निरन्तर जारी रखा। बसु का अब तक का सम्पूर्ण शोधकार्य बिना किसी अच्छी प्रयोगशाला व अच्छे उपकरण के सम्पन्न 'हुआ था, अत: उन्हें एक अच्छी प्रयोगशाला की लालस लम्बे समय से थी । उनकी इस इच्छा की पूर्ति उस समय हुई, जब नवम्बर 1930 में कलकत्ता में 'बोस इंस्टीट्युट" (बसु विज्ञान मंदिर) की स्थापना हुई । वह आजीवन इसके निदेशक रहे । प्रो. बसु की तरह यह इंस्टीट्युट भी सतत् वैज्ञानिक शोधों में संलग्न है और भावी पीढी के लिए प्रेरणा स्रोत है ।  
प्रो. जगदीश चन्द्र बसु को ब्रिटिश सरकार द्वारा सन् 1917 में “नाइट" की उपाधि प्रदान की गई । शीघ्र ही वह भौतिकी व जीव विज्ञान के लिए "रॉयल सोसाइटी लंदन" के फैलो भी चुने गए । इससे पूर्व 1903 में ब्रिटिश सरकार ने ही उन्हें "कम्पेनियन आँफ द आंर्डर आँफ द इंडियन एम्पायर" से भी विभूषित किया था ।
असाधारण प्रतिभा के घनी प्रो. जगदीश चन्द्र बसु का 23 नवम्बर 1937 को बंगाल प्रेसिडेंसी के गिरिडीह (वर्तमान झारखंड) में निधन हो गया । उस समय उनकी आयु 78 साल थी । उनकी मृत्यु के वर्षों बाद एक नोबल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक ने उनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा था"आचार्य जगदीश चन्द्र बसु अपने समय से 60 साल आगे थे । उन्होंने ही पी-टाइप एवं एन-टाइप अर्घचालको के अस्तित्व का पूर्वानुमान किया था ।" सच में प्रो. बसु भारत के प्रथम आधुनिक वैज्ञानिक थे । आधुनिक भारतीय विज्ञान के इतिहास में उनका अद्वितीय स्थान है|
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